अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए कि नहीं, इस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) की तर्ज पर स्थापित अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) का चरित्र राष्ट्रीय है और इसे किसी भी धर्म या धार्मिक संप्रदाय की संस्था नहीं माना जा सकता.
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के माध्यम से लिखित प्रस्तुतियाँ में, जिसमें विवाद को “राष्ट्रीय हित बनाम अनुभागीय हित” के रूप में दर्ज किया गया है, केंद्र ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने 1967 के अजीज बाशा फैसले में सही निर्णय लिया था कि विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा नहीं मांग सकता.
केंद्र ने सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जे बी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और सतीश शर्मा की बेंच के समक्ष अपनी दलीलें रखते हुए कहा, एएमयू किसी विशेष धर्म या धार्मिक संप्रदाय की यूनिवर्सिटी नहीं है और न ही हो सकती है क्योंकि संविधान द्वारा राष्ट्रीय महत्व का घोषित कोई भी विश्वविद्यालय परिभाषा के अनुसार अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकता है.
वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने केंद्र के दावों को एएमयू की ऐतिहासिक नींव को छुपाने का प्रयास करार देते हुए कहा कि यह मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज था जो मुस्लिम समुदाय के कठिन प्रयासों से एएमयू में तब्दील हो गया, जिसने 30 लाख रुपये का एक फंड बनाने के लिए डोनेशन दिया, जिससे 1920 में एएमयू की स्थापना हुई.
केंद्र सरकार ने कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय द्वारा अल्पसंख्यक दर्जे की मांग यूजीसी अधिनियम द्वारा विश्वविद्यालयों के लिए निर्धारित जिम्मेदारी से बचने की एक साजिश है, ताकि विभिन्न पदों पर प्रवेश और रोजगार में एससी, एसटी, ओबीसी और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आरक्षण न दिया जा सके.
एएमयू ने 2006 में पिछड़े वर्गों के लिए कोटा लागू करना बंद कर दिया था, जब सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ अपील स्वीकार करते हुए यथास्थिति का आदेश दिया था, जिसने स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में मुस्लिम छात्रों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण को रद्द कर दिया था.
सरकार ने कहा कि बीएचयू और एएमयू दोनों का राष्ट्रीय चरित्र, जोकि विशेष रूप से और स्वीकार्य रूप से बीएचयू की तर्ज पर स्थापित किया गया था, इस तथ्य से स्पष्ट है कि भले ही एक विषय के रूप में शिक्षा प्रांतीय विधायिका के साथ निहित थी, 1935 के भारत सरकार अधिनियम ने इन दोनों को रखा था संघीय विधायिका के नियंत्रण में विश्वविद्यालय. इसमें कहा गया कि एएमयू जैसे बड़े संस्थान को अपने धर्मनिरपेक्ष मूल को बनाए रखना जरूरी है और राष्ट्र के व्यापक हित को प्राथमिकता देनी चाहिए. अगर एएमयू के तर्कों को स्वीकार कर लिया जाता है, तो वह एससी/एसटी/ओबीसी/ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण प्रदान नहीं करेगा, लेकिन मुसलमानों के लिए आरक्षण प्रदान करेगा जो 50 प्रतिशत या उससे भी अधिक हो सकता है. एएमयू के पीछे प्रमुख चरित्र और उद्देश्य बीएचयू की तर्ज पर एक राष्ट्रीय चरित्र की संस्था बनाना था.
अलीगढ़ विश्वविद्यालय के लिए बहस करते हुए वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने कहा कि इमारत की वास्तुकला, संस्थापकों का इस्लामी शिक्षा प्रदान करने का आदर्श वाक्य और सरकार का लगातार रुख, एक साथ एएमयू के अपरिवर्तनीय इस्लामी चरित्र की ओर इशारा करते हैं, जो निस्संदेह राष्ट्रीय महत्व प्रदान करने वाला एक संस्थान है- सभी धर्मों के छात्रों के लिए प्रवेश.
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