देश भर में 17 जनवरी बुधवार को सिखों के 10वें गुरु गोबिंद सिंह की जयंती मनायी जा रही है. इस दिन को गुरु गोविंद सिंह के प्रकाश पर्व के रूप में भी जाना जाता है. गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म पौष माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को 1666 ई. में बिहार के पटना में हुआ था. गुरु गोविंद सिंह एक महान योद्धा, महान् सेनानायक, वीर क्रांतिकारी, देशभक्त, समाज-सुधारक, भक्त और आध्यात्मिक व्यक्तित्व के एक महान व्यक्ति थे. उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की, जिसे सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है.
प्रकाश पर्व का क्या मतलब है?
प्रकाश पर्व का तात्पर्य मन की बुराइयों को दूर कर उसे सत्य, ईमानदारी और सेवाभाव से प्रकाशित करना है. देश भर के गुरुद्वारों में धार्मिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं. गुरुद्वारों को सजाया जाता है. लोग अरदास, भजन, कीर्तन के साथ गुरुद्वारा जाते हैं और गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा बताए गए धर्म के मार्ग पर चलने का संकल्प लेते हैं. इस दिन सिख समुदाय के लोग अपनी जरूरत की चीजें गरीबों और जरूरतमंदों को दान में देते हैं.
गुरु गोविंद सिंह जी का जीवन
वहीं बचपन के 5,6 वर्ष बिताकर वे बनारस, प्रयाग, अयोध्या, मथुरा, वृन्दावन आदि धार्मिक-स्थलों के दर्शन करते हुए आनन्दपुर साहिब आए थे. जब गुरु गोविन्द राय नौ वर्ष के थे तब उन्होंने पिता गुरु तेगबहादुर को धर्म की रक्षार्थ बलिदान देने के लिए प्रेरित किया था. धर्म, जाति और देश की रक्षा के लिए अपने चारों पुत्रों को अन्यायी, अत्याचारी व धोखेबाज औरंगजेब और उसकी सेना के हाथों खो देने के बाद भी उन्होंने सारे भारतीय समाज को अपने पुत्रों की संज्ञा प्रदान की. इसीलिए तो परवर्ती समाज ने उन्हें दशमेश पिता की संज्ञा दी. उनकी व्यापकता, उदारता और समता की दृष्टि का इससे बड़ा प्रमाण हो भी क्या सकता है. गुरु गोविन्द सिंह जी ने दशम ग्रन्थ का सृजन किया और आदि ग्रन्थ को श्री गुरु ग्रन्थ साहिब बनाकर सिक्ख पंथ का शाश्वत गुरु भी बना दिया. गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया ले कर आया. उन्होंने 1699 में बैसाखी के दिन खालसा जो की सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया.
श्री आनंदपुर में एक विशाल सभा में उन्होंने सबके सामने पुछा – “कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है”? उसी समय एक हिन्दू इस बात के लिए राजी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ. गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पुछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राजी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बहार निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था. उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया.
उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया. पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छठवां खालसा का नाम दिया गया जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया. उन्होंने पांच ककारों का महत्व खालसा के लिए समझाया और कहा – केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कच्चेरा.
इधर 27 दिसम्बर सन् 1704 को दोनों छोटे साहिबजादे और जोरावर सिंह व फतेह सिंहजी को दीवारों में चुनवा दिया गया. जब यह हाल गुरुजी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है.
8 मई सन् 1705 में ‘मुक्तसर’ नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई. अक्टूबर सन् 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ पर आपको औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा. औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था. हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा है. इसका कारण था सच्चाई. गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए.
सरहिंद के नवाब द्वारा भेजे गए दो पठानों द्वारा तलवार के आक्रमण से घायल होने के बाद नांदेड़ में 42 वर्ष की छोटी आयु में ही देश, धर्म और जाति का यह महान् सपूत सदा के लिए विदा हो गया. धन्य है ऐसा गुरु और उसकी जननी-भारत माता. अंत समय आपने सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका. गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी.
गुरु गोविंदजी के बारे में लाला दौलतराय, जो कि कट्टर आर्य समाजी थे, लिखते हैं ‘मैं चाहता तो स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, परमहंस आदि के बारे में काफी कुछ लिख सकता था, परंतु मैं उनके बारे में नहीं लिख सकता जो कि पूर्ण पुरुष नहीं हैं. मुझे पूर्ण पुरुष के सभी गुण गुरु गोविंदसिंह में मिलते हैं.’ अतः लाला दौलतराय ने गुरु गोविंदसिंहजी के बारे में पूर्ण पुरुष नामक एक अच्छी पुस्तक लिखी है.
इसी प्रकार मुहम्मद अब्दुल लतीफ भी लिखता है कि जब मैं गुरु गोविंदसिंहजी के व्यक्तित्व के बारे में सोचता हूँ तो मुझे समझ में नहीं आता कि उनके किस पहलू का वर्णन करूँ. वे कभी मुझे महाधिराज नजर आते हैं, कभी महादानी, कभी फकीर नजर आते हैं, कभी वे गुरु नजर आते हैं.
उन्होने अन्याय, अत्याचार और पापों को खत्म करने के लिए और धर्म की रक्षा के लिए मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े. धर्म की रक्षा के लिए समस्त परिवार का बलिदान किया, जिसके लिए उन्हें ‘सरबंसदानी’ (पूरे परिवार का दानी ) भी कहा जाता है. इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले, आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं.
विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय होने के साथ-आथ गुरु गोविन्द सिंह एक महान लेखक, मौलिक चिन्तक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे. उन्होंने स्वयं कई ग्रन्थों की रचना की. वे विद्वानों के संरक्षक थे. 52 कवि और साहित्य-मर्मज्ञ उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे. वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे. इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता है.
उन्होंने सदा प्रेम, सदाचार और भाईचारे का सन्देश दिया. किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया. गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए. वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन. वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे. उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी. उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि “धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है”.
उनके द्वारा लिखे कुछ दोहे इस प्रकार हैं:-
देही शिवा बर मोहे,
शुभ करमन ते कभुं न टरुं.
न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं,
निश्चय कर अपनी जीत करौं..
अर्थात – हे परमशक्ति माँ (शिवा) ऐसा वरदान दो कि मैं अपने शुभ कर्म पथ से कभी विचलित न हो पाऊं. शत्रु से लड़ने में कभी न डरूं और जब लड़ूं तब उन्हें परास्त कर अपनी जीत सुनिश्चित करूं.
मिटे बांग सलमान सुन्नत कुराना.
जगे धर्म हिन्दुन अठारह पुराना..
यहि देह अँगिया तुरक गहि खपाऊँ.
गऊ घात का दोख जग सिऊ मिटाऊँ..
अर्थात – हिन्दुस्तान की धरती से बाँग (अजान) , सुन्नत (इस्लाम) और क़ुरान मिट जाये, हिन्दू धर्म का जागरण हो कर अट्ठारह पुराण आदर को प्राप्त हों. इस देह के अंगों से ऐसा काम हो कि सारे तुर्कों को मारकर खत्म कर दूं और गो-वध का दुष्कृत्य संसार से नष्ट कर दूँ.
गुरु का स्वप्न है …
सकल जगत में खालसा पंथ गाजै.
जगै धर्म हिन्दू तुरक भंड भाजै.
अर्थात – दशमेश पिता गुरु गोबिंद सिंह जी कहते हैं-कि सम्पूर्ण सृष्टि में खालसा पंथ की गर्जना हो. हिन्दू धर्म का पुनर्जागरण सारे संसार में हो और पृथ्वी पर से सारे पाप, अव्यवस्था और असत्य के प्रतीक इस्लाम का नाश हो.
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