भारतीय राजनीतिक चिंतन की परंपरा पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन से अधिक पुरानी है. भारत में राजतंत्र और गणतंत्र शासन व्यवस्था प्राचीन हैं. कौटिल्य ने राज्य को अपने आप में साध्य मानते हुए समाज में सर्वोच्च स्थान दिया है. उन्होंने राजा के कार्य क्षेत्र को अत्यंत विस्तृत बताया है. कौटिल्य ने राज्य की संपूर्ण संस्थाओं को मनुष्य के आध्यात्मिक सांस्कृतिक और आर्थिक कल्याण का साधन बताया है. सुझाव दिया है कि राजा को आग, बाढ़, महामारी, अकाल और भूकंप जैसी दैवीय विपत्तियों का निवारण करना चाहिए. राजा को चाहिए कि प्रजा के प्रति पुत्रवत आचरण करे. राज्य में अपराधियों के लिए दंड, बाहरी शत्रुओं से रक्षा, राज्य की आंतरिक व्यवस्था एवं न्याय की रक्षा प्रमुख बताया है.
18वीं लोकसभा का गठन कुछ दिन पूर्व हुआ है. भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिकगठबंधन तीसरी बार केंद्र की सत्ता में आया है. लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही पिछले दिनों पूरे देश के लोगों ने संचार माध्यमों के जरिए देखी. संसद के भीतर के दृश्य काफी निराशाजनक रहे. प्रत्येक लोकसभा और राज्यसभा सदस्य का यह कर्तव्य है कि वह भारतीय संविधान की उद्देशिका में वर्णित तथ्यों के अनुसार आचरण करे. उद्देशिका में कहा गया है कि हम भारत के लोग भारत को (एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों की ,सामाजिक,आर्थिक ,राजनीतिक न्याय, विचार ,अभिव्यक्ति, विश्वास,धर्म और स्वतंत्रता प्रतिष्ठा के अवसर की समता राष्ट्र की एकता और अखंडता बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अधिनियमित आत्मार्पित करते हैं.
भारत के संविधान के अनुसार सदन के सदस्यों का आचरण होना ही मर्यादा है. बीते कुछ समय से ऐसा नहीं हो रहा है. भारी भरकम धनराशि खर्च कर चलने वाले लोकसभा सदन में हंगामा है. शोर शराबा की स्थिति बढ़ी है. यहां तक की शपथ ग्रहण के अवसर पर विभिन्न सांसदों ने शपथ की निर्धारित शब्दावली के अतिरिक्त विशेष विचार धारा से जुड़े हुए नारे लगाए. जो संविधान सम्मत नहीं कहे जा सकते. इस पर सदन को विचार करना होगा. संसद का सदन सुचारु रूप से चले, इसकी जिम्मेदारी सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की बराबर होती है. मगर सत्ता पक्ष और विपक्ष में सकारात्मक चर्चा का अभाव देखा जा रहा है. लोकतंत्र में सशक्त विपक्ष का होना शुभ माना जाता है. होना यह चाहिए कि पक्ष और विपक्ष दोनों मिलकर राष्ट्र के लोगों को समता समृद्धि के अवसर बगैर दलीय,जातीय,पंथिक पूर्वाग्रह के उपलब्ध कराने की कार्रवाई करें. राष्ट्र को शक्तिशाली समृद्धशाली बनाने में कोताही न बरतें.
नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी द्वारा हिंदुओं को लेकर की गई टिप्पणी से संसद की गरिमा को ठेस पहुंची है. अब यह कहा जा रहा है कि उन्होंने भाजपा के लोगों को लक्ष्य कर ऐसी टिप्पणी की है. संपूर्ण हिंदुओं पर नहीं की. लोकसभा भारत का हृदय स्थल है. किसी भी दल के लोकसभा व राज्यसभा के सदस्यों द्वारा भारत को आहत करने वाली टिप्पणियों को क्या जायज ठहराया जा सकता है ? उत्तर होगा नहीं. मगर ऐसा प्राय: होता आ रहा है. इतना ही नहीं, आंध्र प्रदेश के लोकसभा सदस्य असदुद्दीन ओवैसी द्वारा एक अन्य देश का नाम लेकर लोकसभा सदन में जिंदाबाद कहा गया. यह और शर्मनाक घटना है और सीधे-सीधे भारत की संप्रभुता पर हमला है. लोकसभा के भीतर और बाहर कुछ भी बोलने के विरुद्ध आचार संहिता को कठोर बनाया जाना चाहिए ,अन्यथा की स्थिति में यह भारत विरोधी कार्रवाई रुकने वाली नहीं है.
यह भी उल्लेखनीय है कि राष्ट्र के ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा से पीछे हटना भी देश के लोग देख रहे हैं. यह आरोप विपक्ष पर सत्ता पक्ष और सत्ता पक्ष पर विपक्ष लगा रहा है. संविधान विशेषज्ञों द्वारा इस पर चिंता व्यक्त की जा रही है. देश की जनता जिन महानुभावों को अपने जनप्रतिनिधि बनाकर लोकसभा में भेजा है. वह भारत का स्व नहीं देख पा रहे हैं. जो समाज राष्ट्र अपना स्व भूल जाता है, वहां खतरनाक स्थिति हो जाती है. वह मात्र चुनाव में सफल होने को ही बड़ा अधिकार और कर्तव्य मान रहे हैं जबकि संविधान में अधिकारों के साथ कर्तव्य भी साथ-साथ अधिष्ठापित हैं. राजनीतिक दलों को चाहिए कि वह अपने चुने हुए जनप्रतिनिधियों को राष्ट्र के प्रति निष्ठा कर्तव्य अधिकार जनता के प्रति मजबूत जवाबदेही, स्वास्थ्य ,शिक्षा,जीवन रक्षा ,राष्ट्रीय सुरक्षा, नैतिक शिक्षा,पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, नदियां,पहाड़,जंगल,पौराणिक धार्मिक पंथिक आस्थाओं एवं राजनीतिक प्रशिक्षण के उपाय पर विचार करें.
पूर्व प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू संसदीय लोकतंत्र के सिद्धांत और व्यवहार के प्रबल समर्थक थे. उन्होंने लोकतंत्र के सिद्धांत को महात्मा गांधी के नैतिकता के सिद्धांत के साथ मिलकर नया रूप देने की कोशिश की. उनकी दृष्टि में लोकतंत्र अपने आप में साध्य नहीं था, बल्कि वह भारत के लाखों-करोड़ों लोगों के दुख-दर्द और गरीबी दूर करने का साधन मात्र था.
पं.नेहरू ने सन 1936 में लार्ड लोथियन को लिखे गए एक पत्र में कहा कि मैं व्यक्तिगत रूप से राजनीतिक लोकतंत्र को केवल इस आशा से स्वीकार करने के लिए तैयार हूं कि उसका परिणाम सामाजिक लोकतंत्र होगा. नेहरू ने लोकतंत्र के साथ स्वतंत्रता और समानता के अटूट संबंधों को भी स्वीकार किया है. समानता के बगैर स्वतंत्रता और लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं है. डॉ.आंबेडकर के समानता को लेकर विचार हैं कि राजनीतिक क्षेत्र में तो हम एक व्यक्ति,एक वोट,एक मूल्य कर देंगे, परंतु हमारा सामाजिक आर्थिक ढांचा इससे नहीं बदल जाएगा, जिससे एक व्यक्ति,एक मूल्य के सिद्धांत को सार्थक किया जा सके. समानता का सिद्धांत सच्चे अर्थों में तभी सार्थक होगा, जब मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक तीनों क्षेत्रों में प्रत्येक व्यक्ति की मूल्यवत्ता को साकार किया जा सके.
गांधी ,लोहिया और आंबेडकर चाहते थे कि लोकतंत्र के बगैर समानता के कोई अर्थ नहीं है. तब सभी महानुभावों को यह बात समझनी चाहिए कि लोकतांत्रिक व्यवस्था ही हमारे राष्ट्र जीवन में अच्छे परिवर्तन लाने वाली है. हमारा संविधान ही सर्वोत्तम है. संविधान से बड़ा कोई नहीं है. भारत के लोकतंत्र की विश्व में प्रतिष्ठा है. संविधान के प्रति निष्ठा अधिकतम आदर्श स्थिति तक ले जाती है. किसी विषय पर केंद्रित होकर सकारात्मक चर्चा नहीं हो पा रही है. हो सकता है कि कुछ राजनीतिक बिंदुओं पर विपक्ष और सत्ता पक्ष एक राय न हो. राष्ट्र की अस्मिता से जुड़े मुद्दों पर पक्ष -विपक्ष को राजनीति न कर राष्ट्रीय हितों के मुद्दों पर एक साथ होना चाहिए. गठबंधन सरकारें पहले भी रही हैं. अटल बिहारी वाजपेयी और नरसिम्हा राव की भी सरकारें गठबंधन से ही बनी थीं. इस बार भी गठबंधन सरकार है, मगर आज की स्थिति भिन्न है. लगता है विरोध के स्थान पर शत्रु भाव बढ़ता जा रहा है. ऐसी कटुता संसदीय मर्यादा के लिए ठीक नहीं है. भारत वासियों के सपनों को हर हाल में पूरा करने के लिए संसद की गरिमा को बचाए रखने के लिए विचार मंथन करना होगा. लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. विपक्ष को चाहिए कि राष्ट्र की मूलभूत समस्याओं को लोकसभा में रखें. लगातार सरकार के कामकाज पर दृष्टि रखें. किसी भी तरह से लोगों का अहित न होने पाए. लोकहित के प्रश्नों को सदन में रखना चर्चा करना, सरकार की रचनात्मक आलोचना करना, नए कानून या संशोधन में अपनी राय देना जैसे महत्वपूर्ण कार्य होते हैं. सवाल उठता है कि विपक्ष और सत्ता पक्ष मिलकर क्या जनहित के किसी विषय पर कोई आदर्श स्थिति बना सकते हैं. मगर विपक्ष अभी तक किस दिशा में जा रहा है, वह स्वयं नहीं तय कर पाया है. एक मजबूत विपक्ष की जिम्मेदारी होती है कि सदन के भीतर से लेकर बाहर तक यहां तक की गांव में भी सत्ता पक्ष द्वारा लिए जा रहे किसी निर्णय पर चर्चा कर सकता है. विपक्ष के दिशाहीन होने से बड़े नुकसान हो सकते हैं. भ्रामक प्रचार और सस्ती लोकप्रियता से काम चलने वाला नहीं है.
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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