केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर में धारा-370 हटने के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. ऐसे में प्रदेश में चुनावी समर जोरों परं है. पॉलिटिकल पार्टियां चुनावी फिजा को देखते हुए धड़ाधड़ वादों की झड़ी लगा रही है. सभी जम्मू-कश्मीर को चमकाने और विकास के पथ पर आगे ले जाने की बात कह रहे हैं. यहां कांग्रेस पार्टी और नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी गठबंधन कर मैदान में उतरी है. नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी ने अपने घोषणापत्र में अनुच्छेद 370 को वापस लाने का वादा किया है. वहीं जम्मू-कश्मीर में एक दरबार प्रथा की बहाली का मुद्दा भी छाया हुआ है. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अपने घोषणापत्र में दरबार मूव को बहाल करने का वादा किया है. वहीं अल्ताफ बुखारी की अपनी पार्टी के घोषणापत्र में भी इस प्रथा को फिर से शुरू करने का जिक्र किया गया है.
बता दें जम्मू-कश्मीर में ‘दरबार मूव’ की प्रथा अभी की नहीं है बल्कि 150 साल से भी ज्यादा पुरानी है. जुलाई 2021 में इसे खत्म कर दिया गया था. अब जब चुनाव है तो इसके बहाली के वादे चुनावी समर में खूब किए जा रहे हैं.
दरबार प्रथा क्या है?
इस प्रथा के तहत ही हर छह महीने में जम्मू-कश्मीर की राजधानी बदल जाती थी. सर्दियों में राजधानी जम्मू होती थी, जबकि गर्मियों के मौसम में राजधानी श्रीनगर हुआ करती थी. सर्दी आने पर अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में राजधानी को श्रीनगर से जम्मू शिफ्ट किया जाता था. वहीं गर्मी आने पर अप्रैल के आखिल हफ्ते तक उसे दोबारा जम्मू से श्रीनगर ले जाया जाता था. राजधानी बदलने की इसी प्रथा को ‘दरबार मूव’ कहा जाता था.
राजधानी शिफ्ट करने के दौरान ट्रकों में फाइलों और सामानों को भर-भरकर जम्मू से श्रीनगर और श्रीनगर से जम्मू लाया जाता था. इस दौरान 300 किलोमीटर लंबे श्रीनगर-जम्मू हाइवे से सफर तय करना पड़ता था.
दरबार प्रथा की शुरूआत कब हुई?
दरअसल, दरबार मूव की ये प्रथा साल 1872 में शुरू की गई थी. तब जम्मू-कश्मीर पर डोगरा शासक महाराजा रणबीर सिंह का शासन था. वैसे कहा जाता है कि मौसम की वजह से दरबार शिफ्ट किया गया. लेकिन इसके पीछे राजनैतिक कारण भी माना जाता है. साल 1870 के दशक में रूसी सेना ने मध्य एशिया की तरफ बढ़ रही थी. रूस की सेना अफगानिस्तान तक भी पहुंच गई थी. रूसी सेना की नजरें कश्मीर घाटी पर थीं. इसी डर से अंग्रेजों ने दरबार मूव किया. तब से ही ये प्रथा शुरू हो गई.
आजादी के बाद भी ये प्रथा जारी रही. साल 1957 में बख्शी गुलाम मोहम्मद ने भी श्रीनगर को स्थायी राजधानी बनाने का फैसला लिया, लेकिन इसका पुरजोर विरोध हुआ. फिर, 1987 में जब फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने इस प्रथा को थोड़ा सीमित करने की कोशिश की. उन्होंने फैसला लिया कि कुछ विभाग हमेशा जम्मू में रहेंगे तो कुछ कश्मीर में रहेंगे. इसका भी काफी विरोध हुआ और जम्मू में 45 दिन तक बंद रहा. इसके बाद सरकार को झुकना पड़ा.
हाईकोर्ट ने दरबार प्रथा को बताया समय की बर्बादी
मई 2020 में जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने दरबार प्रथा को समय की बर्बादी बताया था. सरकार को स्थायी समाधान करने को कहा था. जून 2021 में सरकार ने इस प्रथा को पूरी तरह से बंद कर दिया. अब जम्मू-कश्मीर की स्थायी राजधानी श्रीनगर ही बन गई है. सारे सरकारी दफ्तर और सचिवालय श्रीनगर में ही है.
दो राजधानी के कन्सैप्ट इस दरबार प्रथा को खत्म करने की आर्थिक वजह भी है. हर 6 महीने में राजधानी बदलने पर करोड़ों रूपये खर्च होते थे. जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने कहा था कि दरबार प्रथा खत्म होने से हर साल 200 करोड़ रुपये की बचत होगी. लेकिन अब जब जम्मू-कश्मीर में चुनाव हैं तो ये मुद्दा फिर से उठाने का वादा किया जा रहा है.
उमर अब्दुल्ला ने बताए प्रथा के फायदे
नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला का कहना है कि जम्मू की अर्थव्यवस्था काफी हद तक कश्मीर से आने वाले सरकारी कर्मचारियों पर निर्भर थी. वो यहां आकर किराये पर घर लेते थे. काफी पैसा खर्च करते थे. छह महीने के लिए यहां की अर्थव्यवस्था अच्छी रहती थी. लेकिन दरबार प्रथा खत्म होने से जम्मू की आर्थिकी पर असर पड़ा है.
बता दें जम्मू-कश्मीर में तीन चरणों में 18 सितंबर, 25 सितंबर और 1 अक्टूबर को विधानसभा के वोट डाले जाएंगे. वहीं 8 अक्टूबर को नतीजे घोषित किए जाएंगे.
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