स्वस्थ रहना, यानी अपने आप में (आत्मस्थ!) रहना हमारी स्वाभाविक स्थिति होनी चाहिए पर समकालीन परिवेश में यह संभव नहीं हो पा रहा है. स्वास्थ्य में थोड़ा बहुत उतार-चढ़ाव तो ठीक होता है और वह जल्दी ही संभल भी जाता है पर ज़्यादा विचलन होने पर वह असह्य हो जाता है और तब व्यक्ति को ‘बीमार’ या ‘रोगी’ कहा जाता है. तब मन बेचैन रहता है, शरीर में ताक़त नहीं रहती और दैनिक कार्य और व्यवसाय आदि के दायित्व निभाना कठिन हो जाता है, जीवन जोखिम में पड़ता-सा लगता है और उचित उपचार के बाद ही स्वास्थ्य की वापसी होती है. किसी स्वस्थ आदमी का अस्वस्थ होना व्यक्ति, उसके परिवार, सगे-सम्बन्धी और परिजन और मित्र सभी के लिए पीड़ादायी होता है और जीवन की स्वाभाविक गति में व्यवधान उपस्थित हो जाता है. रोग की तीव्रता के अनुसार उसका असर कम या ज्यादा अवधि तक बना रह सकता है. रोग होने का मुख्य कारण व्यक्ति की आनुवंशिक पृष्ठभूमि के साथ, उसकी जीवन शैली और वे भौतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ भी होती हैं जिनमें हम जीवन यापन करते हैं.
तीव्र सामाजिक परिवर्तन के दौर में लगातार बदलाव आ रहे हैं. गौरतलब है कि अक़्सर मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के बीच भेद किया जाता है हालाँकि यह सोच ठीक नहीं है. मानसिक परेशानी के चलते शारीरिक बीमारियाँ और शारीरिक रोग से मानसिक रुग्णता होना एक आम बात है. शरीर और मन को अलग रखना ग़लत है क्योंकि स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य दोनों ही स्थितियों में ये एक संयुक्त इकाई के रूप में ही काम करते हैं. हम रोग का अनुभव भी करते हैं और उससे निपटने की कोशिश भी करते हैं. जब जीवन की घटनाएँ ख़ास तौर पर त्रासद (ट्रूमेटिक) होने लगती हैं तो मानसिक की आहट मिलने लगती है. इस दृष्टि से बेरोज़गारी, सामाजिक अन्याय, पारिवारिक विघटन, जीवन-हानि, और ग़रीबी जैसी स्थितियाँ आम आदमी के मानसिक स्वास्थ्य के लिए चुनौती बनती जा रही हैं. कम्प्यूटर, इंटरनेट और कृत्रिम बुद्धि जैसे तकनीकी हस्तक्षेपों के चलते काम-काज अधिकाधिक स्वचालित होते जा रहे हैं. इससे न केवल कर्मियों की ज़रूरत घटती जा रही है बल्कि कार्य की प्रकृति भी बदल रही है।.स्मार्टफ़ोन और टेबलेट जैसे सूचना और संचार के उपकरणों के नए-नए माडल शान-शौक़त का प्रतीक भी बनते जा रहे हैं. सोशल मीडिया की लत भयानक साबित हो रही है. लोग ‘लाइक’ और ‘सब्सक्राइब’ करने के अनुरोध से आजिज़ आने लगे हैं. ऐसे उपकरणों के न होने पर आदमी की हैसियत कम आंकी जाती है जो मानसिक अस्वस्थ्यता का कारण बनती है. साथ ही शारीरिक श्रम से बचने और फ़ास्ट और जंक फ़ूड खाने से शरीर बेडौल हो रहा है और लोग क़िस्म-क़िस्म के रोगों के भी शिकार हो रहे हैं.
वैश्विक स्तर पर हुए स्वास्थ्य-सर्वेक्षणों में दुश्चिंता, ओसीडी, पीटीएसडी, फोविया, बाई पोलर डिसऑर्डर आदि मनोरोगों से ग्रस्त लोगों की संख्या निरंतर बढ़ रही है. लोग मादक द्रव्य, तम्बाकू, मद्यपान और विभिन्न ड्रग्स का सेवन भी तेज़ी से कर रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपटें इक्कीसवीं सदी में स्वास्थ्य का भयावह चित्रण कर रही हैं। स्थिति की भयावहता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अकेले उत्तरी अमेरिका में सन 2022 में 326 बिलियन डालर अवसाद (डिप्रेशन) के उपचार में खर्च हुआ था. दस वर्ष पहले 2010 में यह खर्च 210.5 बिलियन डालर का था। प्रौढ़ जनसंख्या में एक तिहाई लोग अनिद्रा रोग से ग्रस्त है.
गौरतलब है कि 1999 के बाद आत्महत्या के मामलों में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. भारत में 2017 में हुए सर्वेक्षण में हर सात भारतीयों में से एक किसी न किसी मनोरोग से ग्रस्त होता पाया गया. आज अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं और आर्थिक संसाधन बढ़ने के साथ जीवन-विस्तार यानी शरीर की आयु तो बढ़ गई पर आदमी का मन कमजोर होने लगा. अल्ज़ाइमर और ड़ेमेंशिया के रोगी प्रौढ़ होते लोगों में तेज़ी से बढ़ रही हैं. इस बीच बृद्ध जनों को लेकर पारम्परिक सामाजिक-सामुदायिक समर्थन भी कमजोर हुआ है. अस्तित्व का व्यापकीकरण, नई प्रौद्योगिकी, पारिवारिक विघटन, और समाज के ताने-बाने में आ रहे बदलाव अवसाद को तेज़ी बढ़ा रहे हैं. अवसाद, मद्य निर्भरता, बाईपोलर डिसऑर्डर और शीजोफ़्रेनिया आज एक महामारी के रूप में उभर रही है. दुश्चिंता (ऐंगजाइटी), जिसमें जीवन के भविष्य को लेकर भय और जोखिम की चिंता, पेशीय तनाव आदि शामिल होता है, की आज की प्रवृत्ति बनी रही तो इस सदी के तीसरे दशक में पहुँचते हुए वैश्विक स्तर पर 16 ट्रिलियन डालर मनोरोगों से जूझने में खर्च करने होंगे.
कहते हैं हमारा मन ही बांधता है और मुक्त भी करता है. हम सामान्यत: जीवन की स्थितियों को चुनते हैं, यह अलग बात है कि हमारा चयन कैसा है. कई बार स्थितियाँ हमारे न चाहने पर भी आरोपित हो जाती हैं। आज तेज रफ़्तार ज़िंदगी में गति, मात्रा और तीव्रता के पैमाने तेज़ी से बदल रहे हैं. इच्छाओं की पूर्ति होना प्रीतिकर है और हम पूर्णता का अनुभव करते हैं. परंतु यह पूर्णता स्थायी नहीं होती है क्योंकि इच्छाओं का ओर छोर नहीं है. वैसे भी इच्छाओं को कार्य रूप देने के लिए तैयारी, संसाधन, चेष्टाएँ और ज्ञान सब की ज़रूरत पड़ती है. सांसारिक सुख-भोग करना सबको प्रिय है. बाज़ार और विज्ञापन ने सुख को उपभोग से जोड़ कर आग में घी काम किया और अब हम अपनी ‘सफलता’ और विकास अधिकाधिक उपभोग में देखने के आदी होते गए हैं परंतु तनाव, चिंता, दबाव, अकेलापन, व्यसन या लत, असंतुष्टि, कुंठा जैसे अनुभव सामान्य हैं. हम असंतुष्ट रहते हुए उपभोग की वस्तुओं को एकत्र करते रहने को ही सुखमय लक्ष्य की ओर चलने का मार्ग मान बैठे और यह दावा आज की हालत देख कर खोखला लगता है. कोविड की महामारी के दौरान भय, अनिश्चय और अकेलेपन के लक्षणों में जो बेतहाशा वृद्धि हुई है उसने मनुष्य के लोभ के आचरण पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है.
ऐसी स्थिति में भावनात्मक, सामाजिक और मानसिक स्वस्ति भाव और स्वास्थ्य को स्थापित करने का प्रयास आज की महत्वपूर्ण वैश्विक आवश्यकता है. भारतीय दृष्टि से मनुष्य का अस्तित्व भौतिक, प्राणिक, मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक और आध्यामिक स्तरों वाली संरचना है. हमारे स्वास्थ्य की स्थिति इनके बीच परस्पर समन्वय पर टिकी रहती है. मन और शरीर का सामंजस्य ही उत्तम स्वास्थ्य का रहस्य है। आज इस सामंजस्य के अभाव में मानसिक स्वास्थ्य एक बहु आयामी चुनौती बन रहा है. स्वस्थ्य रहने के लिए ज़रूरी क्या है? इस सवाल के जबाव में श्रीभगवद्गीता में युक्त आहार (भोजन), विहार (आचरण), निद्रा और चेष्टा (कार्य) को आवश्यक बताया गया है. ‘युक्त’ का अर्थ है उपयुक्त या ठीक-ठीक अनुपात। पाँच महाभूत– पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ही हमें रचते हैं और रचना के बाद आकार पा कर हम भी उन्हें प्रभावित करते हैं. इनके साथ संगति और विसंगति से, स्वास्थ्य का विचार और स्वास्थ्य की स्थिति दोनों ही प्रभावित होते हैं. हमारा शरीर साध्य भी है और मानसिक अस्तित्व का साधन भी. बाहर का कोलाहल कम कर योग और ध्यान की सहायता से आंतरिक शांति की स्थिति पैदा करना श्रेयस्कर है. सुख की दिशा में अग्रसर होने की यही राह है.
यह अनायास नहीं है कि ‘सम’, ‘समत्व’ और मध्यम मार्ग को अपनाने पर बड़ा जोर दिया जाता रहा है. आयुर्वेद जीवन के हर पक्ष में सम बनाये रखने का निर्देश देता है तो गीता समत्व की साधना को योग घोषित करती है: समत्वं योग उच्यते. इसी तरह महात्मा बुद्ध अधिक और कम के बीच का मार्ग (मज्झिमा परिपदा) अपनाने को कहते हैं. लोक-व्यवहार में भी ‘अति’ वाला आचरण वर्जित माना जाता है। बड़े-बूढ़े अब भी संतुलित जीवन की हिदायत देते हैं.
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं)
हिन्दुस्थान समाचार
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