दिल्ली में विधानसभा चुनाव बेहद अलग और दिलचस्प है. मौजूदा सरकार के सुप्रीमो केजरीवाल जैसी मुफ्त की रेवड़ियों का वादा अब तो सभी पार्टियां और राज्य न केवल करने लगे हैं बल्कि पूरा भी कर रहे हैं. ऐसे में यह चुनाव वाकई दिल्ली वालों के लिए हर हाथ में लड्डू जैसे होंगे. इतना है कि इस बार मुकाबला न केवल कांटे का बल्कि त्रिकोणीय सा बनता जा रहा है. लेकिन यह भी सच है कि सरकार किसी की बने लुभावनी योजनाओं का अंबार होगा. इससे दिल्ली की कितनी तकदीर बदलेगी यही देखने लायक होगा.
दिल्ली का चुनावी सफर भी दिलचस्प है. साल 1952 में पहली बार राज्य विधानसभा का गठन हुआ तब 48 सीटें थीं. कांग्रेस ने 36 सीटों पर जबरदस्त जीत दर्ज की. 34 वर्ष के चौधरी ब्रह्म प्रकाश मुख्यमंत्री बने जो नेहरू जी की पसंद थे. दरअसल कांग्रेस देशबंधु गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाना चाह रही थी लेकिन एक हादसे में उनकी मृत्यु के चलते ब्रह्म प्रकाश एक्सीडेंटल मुख्यमंत्री बने. बेहद साधारण पृष्ठभूमि से आने वाले रेवाड़ी के निवासी ब्रह्म प्रकाश कभी भी मुख्यमंत्री आवास में नहीं रहे. बिना तामझाम काम करते और जनसाधारण के बीच रहते. 1955 में कांग्रेस ने गुरमुख निहाल सिंह को मुख्यमंत्री बनाया जो 1956 तक रहे. राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के चलते साल भर बाद दिल्ली विधानसभा भंग हुई. 1966 में इसकी जगह मेट्रोपोलिटन काउंसिल बनी. इसमें 56 निर्वाचित और पांच मनोनीत सदस्यों का प्रावधान था. लेकिन 1991 में 69वें संविधान संशोधन के जरिए दिल्ली विधानसभा की व्यवस्था हुई और 1992 में परिसीमन और 1993 में चुनाव हुए.
1993 में भाजपा बहुमत में आई. मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बने और 1956 के बाद दिल्ली को कोई मुख्यमंत्री मिला. लेकिन पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदले गए. खुराना को घोटाले के आरोपों के चलते कुर्सी छोड़नी पड़ी. फिर साहिब सिंह वर्मा आए और महंगाई के मुद्दे पर ऐसे घिरे कि उन्हें भी इस्तीफा देना पड़ा. इनके बाद सुषमा स्वराज को कमान मिली जो महज 52 दिन मुख्यमंत्री रहीं.
1998 के चुनाव में भाजपा ने सुषमा स्वराज को तो कांग्रेस ने शीला दीक्षित को आगे किया. कांग्रेस की जीत हुई और शीला दीक्षित मुख्यमंत्री बनीं. दिल्ली में फ्लाई ओवरों का जाल, मेट्रो रेल का विस्तार, डीजल की जगह सीएनजी के उपयोग को बढ़ावा और हरियाली पर खास ध्यान सहित दूसरे काम उनकी पहचान बने. 1998 से 2013 तक तीन बार लगातार दिल्ली की सत्ता पर कांग्रेस और शीला दीक्षित काबिज रहीं. इस बीच 2011 में जन लोकपाल विधेयक की मांग पर दिल्ली में अन्ना आंदोलन हुआ. अप्रैल में पांच दिन का आमरण अनशन और दोबारा 16 अगस्त से फिर अनशन बैठते ही देश भर में आन्दोलनों की दस्तक हुई. आखिर संसद में बिल पास हुआ और देखते-देखते अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, आतिशी और कई चेहरे भारतीय राजनीति के नए हीरो बन गए. आम आदमी पार्टी ने 2013 का दिल्ली चुनाव लड़ा और 15 वर्षों से काबिज कांग्रेस सरकार गिरा दी. 70 सीटों में भाजपा ने 32 जीती फिर भी बहुमत से दूर रही. आम आदमी पार्टी 28 सीटें जीतने के बाद कांग्रेस की 7 सीटों के समर्थन से सरकार बनाने में कामयाब रही और अन्ना आन्दोलन से उपजे केजरीवाल पहली बार मुख्यमंत्री बने.
कहते हैं राजनीति शह-मात का खेल है. आप और कांग्रेस की नहीं निभी. आखिर 49 दिन में सरकार गिर गई और राष्ट्रपति शासन लग गया. 2015 में फिर चुनाव हुए. इसमें दिल वालों की दिल्ली ने केजरीवाल पर अपनी उम्मीदों की बख्शीश खूब लुटाई. 70 में से 67 रिकॉर्ड सीटें जीतकर केजरीवाल भारतीय राजनीति के नए सितारे बन गए. भाजपा केवल तीन सीटें तो कांग्रेस खाता भी नहीं खोल पाई. केजरीवाल भी अपनी तमाम घोषणाओं पर अमल करते रहे. नतीजन 2020 में एक बार आम फिर आदमी पार्टी ने 62 सीटें तो भाजपा 8 से आगे नहीं बढ़ पाई. कांग्रेस शून्य पर ही रही. लुभावनी योजनाओं का असर दिखा. आम आदमी पार्टी को फिर बहुमत मिला और केजरीवाल मुख्यमंत्री बने. इसके बाद विवादों में घिरे, जेल गए और मुख्यमंत्री पद छोड़ा. अब दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी भले हैं लेकिन पार्टी सुप्रीमो केजरीवाल ही हैं.
बेहतरीन सरकारी स्कूल, मोहल्ला क्लीनिक, महिलाओं को मुफ्त बस सुविधा, 200 यूनिट बिजली फ्री, 20 हजार लीटर मुफ्त पानी, बुजुर्गों का मुफ्त तीर्थ दर्शन जैसी अन्य योजनाओं के साथ नई-नई घोषणाएं करते केजरीवाल तो 1998 से 2013 तक के कार्यकाल को दिल्ली का स्वर्णिम काल बता कांग्रेस असली विकास और उपलब्धियां गिनाते नहीं थकती. भाजपा मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की तर्ज पर महिलाओं को हर महीने धनराशि देने, मौजूदा योजनाओं को न केवल जारी रखने बल्कि उसमें बढ़ोतरी करने जैसा संकल्प यानी एक से एक लुभावनी घोषणाओं का पिटारा खोल आम आदमी पार्टी को चुनौती देने में कोई कसर छोड़ते नहीं दिखती.
मुफ्त की रेवड़ियों, लोक-लुभावन घोषणाओं के बीच दिल्ली का प्रदूषण, यमुना की गंदगी, बदहाल सड़कें, बरसात में डूबते पुल-पुलिया, पीने के पानी की किल्लत, बढ़ते अपराध और इन सबसे ऊपर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा जैसे अहम मुद्दे काफी पीछे छूट गए हैं. काश! एक करोड़ की आबादी खातिर मौजूदा संसाधनों वाली दिल्ली में तीन करोड़ लोग कैसे रहते हैं को देखने, सुनने वाले जैसे आम आदमी के मुद्दों की भी बात होती. लेकिन फिलहाल माल-ए-मुफ्त, दिल-ए-बेरहम की तर्ज पर मतदाताओं को लुभाने में कोई पीछे नहीं दिखता. अब दिल्ली की बात कौन करे? देखने लायक होगा कि त्रिकोणीय मुकाबले में कौन किसको कितना नुकसान पहुंचाता है और बाजी जीतता है.
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
हिन्दुस्थान समाचार
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