Opinion: शिक्षा की प्रक्रिया समाज को योग्य और समर्थ बनाने की दिशा में कितनी महत्वपूर्ण है यह किसी से छिपा नहीं है. शिक्षा के परिसर एक परिपक्व और सृजनशील मनुष्य बनाने की प्रयोगशाला सरीखे होते हैं. वहाँ रह कर विद्यार्थी जीवन मूल्यों की दीक्षा पाता है. उनके व्यक्तित्व की बुनावट भी बहुत हद तक वहीं होती है. भारत में शिक्षा ऐतिहासिक रूप से अनेक चुनौतियों से घिरी रही है इसलिए इसकी समस्याएँ इकट्ठी होती गई हैं. भारतीय राजनीति शिक्षा के प्रति अलग-अलग नजरिए से संवेदनशील रही है. फलतः शिक्षा में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से राजनीतिक प्रयोग होते रहे हैं. चूँकि शिक्षा समाज के वर्तमान और भविष्य दोनों से जुड़ी रहती है उसमें राजनैतिक दिलचस्पी भी रहनी स्वाभाविक है और देश के इतिहास, अस्मिता और गौरव-बोध से भी इसका खास रिश्ता बन जाता है. इसलिए सेकुलर, वैश्विक और तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टि शिक्षा की आधारशिला बनी जिसने बहुत कुछ जो भारतीय था उसे भुला दिया, बहिष्कृत कर दिया या घटा-बढ़ा कर विकृत रूप में शामिल किया. भारत बोध या भारतीय संस्कृति से उसका रिश्ता कमजोर या फिर अधूरा, असंतुलित और ग़ैर समावेशी होता गया. दूसरी ओर भारतीय ज्ञान परम्परा समृद्ध, सुदृढ़ और बहु आयामी होने के बावजूद भी बिना जाँचे-समझे संशय और संदेह के चलते ओझल ही बनी रही. आज अपनी विरासत से आज युवा वर्ग अपरिचित हैं. भारतीय बौद्धिक और सांस्कृतिक यात्रा से विद्यार्थियों की अनभिज्ञता बढ़ती गई. विषयवस्तु और संदर्भ दोनों ही तरह से भारतीय छात्र-छात्राएँ तटस्थ रुख़ अपनाते हैं. शिक्षा की प्रक्रिया को पश्चिमी दुनिया के अनुकूल बनाने और उसी के पैमाने पर चलाने का तरह-तरह का उद्यम जोरों पर चलता रहा. पश्चिमी ज्ञान पर बिना जाने-समझे भी अतिरिक्त भरोसा अनुकरणमूलक ज्ञान को अपनाने के लिए आधार तैयार करता रहा. पाश्चात्यीकरण को सार्वभौमिक रूप से उपादेय मान लिया गया.
औपनिवेशिक काल में ज्ञान और संस्कृति के एकल प्रतिमान के रूप में जो अंग्रेजियत स्थापित हुई वह छाती चली गई। इस सीमित दृष्टि वाली शिक्षा को विकसित होने की शर्त बना लिया गया. स्वतंत्र भारत में अपनाई गई शिक्षा की नीतियां , योजनाएँ, प्रावधान और उनका कार्यान्वयन प्रायः पुरानी लीक पर ही होता रहा. स्वतंत्र होने के बाद भी पश्चिमी मॉडल आच्छादित किए रहा और आज भी हम उससे उबर नहीं पाये हैं और थोड़ा बहुत हेरफेर लाकर काम चलाते रहे. पाश्चात्य दृष्टि को सार्वभौमिक मानते हुए उसे आरोपित किया जाता रहा. परिणाम यह हुआ कि भारतीय शिक्षा के समग्र , समावेशी और स्वायत्त स्वरूप विकसित करने की बात धरी की धरी रह गई. संरचनात्मक बदलाव, विषयवस्तु, छात्र पर शैक्षिक भार, और अध्यापक-प्रशिक्षण आदि गंभीर विषयों को लेकर भी गंभीर असमंजस बना रहा. हाँ, इस अर्थ में प्रजातंत्र ज़रूर बना रहा कि आज पूर्व प्राथमिक (प्रिप्राइमरी) से लेकर उच्च स्तर तक शिक्षा तक क़िस्म-क़िस्म के सरकारी और निजी क्षेत्र के माडेल और पैमाने उनकी गुणवत्ता की पहचान के बिना चलते रहे. सरकारी और अर्ध सरकारी शिक्षा संस्थाएँ भौतिक संसाधनों और अध्यापकों की कमी बनी रही. साधनसम्पन्न लोग ज़रूर अपने बच्चों को विदेश पढ़ने को भेज रहे हैं और आज लाखों छात्र विदेश में पढ़ रहे हैं। ऐसे लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है.
अमृत काल में भारत ने वर्ष 2047 में देश को विकसित करने का संकल्प लिया है ताकि आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और जीवन की गुणवत्ता की दृष्टि से देश की सामर्थ्य में अभिवृद्धि हो और वह विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में जाए. आठ ट्रिलियन की अर्थ व्यवस्था निश्चय ही एक बड़ा आकर्षक लक्ष्य है. जनसंख्या वृद्धि को देखते हए शिक्षार्थियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. इस दृष्टि से योजना बनानी होगी और बजट में शिक्षा के लिए प्रावधान बढ़ाने की ज़रूरत है ताकि शिक्षा की गुणवत्ता स्थापित की जा सके. कई सालों से शिक्षा पर देश के बजट में छह प्रतिशत खर्च करने की बात दुहराई जाती रही है परंतु वास्तविक व्यय तीन प्रतिशत भी बमुश्किल हो पाता है. तथाकथित लचीली, बहु अनुशासनात्मक, कौशल आधृत, जीवनोपयोगी और दक्षता पर बल देने वाली राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के महत्वाकांक्षी प्रस्तावों के क्रियान्वयन के लिए वित्त की आवश्यकता को स्वीकार करना होगा. विकास के पहिए की धुरी शिक्षा होती है. इसलिए यह राष्ट्रीय नियोजन में उचित महत्व की हकदार है.
ज्ञान प्रकृति से ही नैतिक है जिसका कर्णधार अध्यापक है जो मूल्यों को प्रतिष्ठित करने वाला होता है. परंतु आज शैक्षिक परिवेश अध्यापकों की कमी और उनकी ग़ैर अकादमिक आकांक्षाओं से प्रदूषित हो रहा है. पेपर लीक होने की घटनाएँ, शोध में साहित्य चोरी (प्लैगरिज़म) आदि का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है. ज्ञान में वृद्धि और नवोन्मेष की जगह दुहराव और पिष्ट-पेषण की प्रवृत्ति तेज़ी से फैल रही है. ज्ञान की कवायद (ड्रिल) तो हो रही है पढ़ाई की गुणवत्ता घट रही है. खस्ताहाल विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय की पढ़ाई नाकाफ़ी हो रही है। उसकी भरपाई करते कोचिंग संस्थान लोकप्रिय और नफ़े वाला व्यापार बन चुका है. इसके दबाव में विद्यार्थियों का मानसिक स्वास्थ्य नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहा है. लोकहित के व्यापक लक्ष्यों के लिए समानता और समता ज़रूरी है पर भारत में शिक्षा कई तरह से विभेदनकारी होती जा रही है. आज शिक्षा संस्थाओं की अनेक जातियाँ और उपजातियाँ खड़ी हो गई हैं और उनमें अवसर मिलने की संभावना सबको उपलब्ध नहीं है. आज सरकारी, अर्ध सरकारी और स्ववित्तपोषित संस्थाएँ चल रही है. इनमें फ़ीस, प्रवेश, पढ़ाई और परीक्षा के तौर-तरीक़े भी बेमेल हैं. बच्चे को पढ़ाना अभिभावकों के लिए बरसों बरस चलने वाले संघर्ष का सबब बन चुका है.
केन्द्रीय बजट में शिक्षा के मद का नम्बर बहुत बाद में आता है और बचाखुचा उसके हिस्से आता है. दुनिया के अन्य देशों के सापेक्ष शिक्षा के लिए 6 प्रतिशत आवंटन की वकालत कई सालों से की जा रही है. अभिभावकों, शिक्षकों, विद्यार्थियों एवं शिक्षा के अन्य लाभार्थी जनों की दृष्टि से गुणवत्तायुक्त शिक्षा की संभावना अभी भी दूर की कौड़ी बनी हुई है। व्यावहारिक स्तर पर शिक्षा के औपचारिक तंत्र का रोजगार से रिश्ता एक भुलावा बनता जा रहा है. लोग शिक्षा द्वारा रोजगार के अन्य रास्तों को खोलने की घोषणाओं में सुनहरा भविष्य तलाशते हैं पर गुणवत्ता के अभाव में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के बाद से कुछ पहलें हुई हैं. विद्यालयी शिक्षा और उच्च शिक्षा के लिए सरकारी निवेश को बढ़ाना, आधारभूत ढांचे का विस्तार, नए संस्थानों के विकास के साथ-साथ शैक्षिक प्रौद्योगिकी के लिए आधारभूत संसाधनों का विकास सरकारी योजनाओं के लक्ष्य रहे हैं. परंतु शैक्षिक व्यवस्थाओं के विकास एवं पोषण हेतु समुचित बजट का आवंटन प्राथमिकता होनी चाहिए. निःसंदेह गुणवत्तापूर्ण शैक्षिक अवसरों का प्रसार और उपलब्धता भारत के सामाजिक एवं आर्थिक विकास की अनिवार्य कड़ी है. भारत के 14.72 लाख विद्यालयों में 98 लाख शिक्षक 24.8 करोड़ छात्राओं को शिक्षा प्रदान करते हैं. वित्त मंत्री ने ताजे बजट में सभी बच्चों को 100 प्रतिशत स्कूल भेजने का लक्ष्य तय किया है, तकनीकी शिक्षा और शोध विशेषतः कृत्रिम मेधा पर विशेष ध्यान दिया गया है. उसके हित 500 करोड़ रुपये की व्यवस्था है. उसके लिए उत्कृष्टता केंद्रों की स्थापना होगी. डिजिटल इंडिया ई लर्निंग के लिए 681 करोड़ का आबंटन है. मेडिकल कॉलेजों में 10 हजार अतिरिक्त सीटें होंगी. स्कूलों और उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए डिजिटल किताबें देने की तैयारी है. आईआईटी का विस्तार करते हुए 5 आईआईटी के लिए अतिरिक्त बुनियादी ढांचा शिक्षा, रोजगार और कौशल विकास के लिए 1.48 लाख करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है. स्कूली शिक्षा की चुनौती बहुत बड़ी है. नवोदय विद्यालय का बजट कटा है और केंद्रीय विद्यालय , एनसीआरटी, यूजीसी, केंद्रीय विश्वविद्यालय का बढ़ा है. कुल मिला कर उच्च शिक्षा के लिए 7.74 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. शिक्षा के क्षेत्र में आबंटन में 6.65 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. कुल बजट का 2.5 प्रतिशत आबंटन शिक्षा के लिए है.
आज जनसंख्या की दृष्टि से भारत विश्व में प्रथम हो चुका है पर संसाधन सीमित हैं. शैक्षिक नेटवर्क और आधार संरचना को बढ़ाने की आवश्यकता है। विश्व में युवा देश के रूप में भारत से आशा बंधती है परंतु इस युवा शक्ति को नियोजित करना ज़रूरी है. खासतौर पर पारस्परिक हिंसा, अविश्वास, प्रकृति-विनाश और छल प्रपंच के दौर ऐसे में ये प्रश्न महत्वपूर्ण हो गए हैं कि कौन-सा ज्ञान लिया जाय और किस तरह से लिया जाय ? ज्ञान का उद्देश्य क्या हो? विकसित भारत के राष्ट्रीय संकल्प के साथ ज्ञान की दुनिया को सहेजना संवारना भी ज़रूरी है। “विश्व-गुरु “ बनने की उत्कट इच्छा भी व्यक़्त की जाती है. ‘विकसित देश’ और तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बनाने के लिए उद्यत भारत के युवा वर्ग को सभ्य, सुशिक्षित और दक्ष बना कर ही हम आगे बढ़ सकेंगे. शिक्षा को देश–काल के अनुकूल एक नैतिक और मानवीय उपक्रम बना कर ही यह किया जा सकेगा. मानवता को तकनीकी विशेषज्ञों के भरोसे छोड़ना भूल होगी. डिजिटल, वर्चुअल और एआई की ओर झुकाव और मानविकी की उपेक्षा असंतुलन को जन्म देने वाला है. मानविकी, साहित्य, दर्शन और इतिहास भी महत्वपूर्ण हैं विशेषतः नैतिक और सामाजिक दृष्टि से समृद्ध करने के लिए. आशा है भारतीय शिक्षा को इन सभी दृष्टियों से सुदृढ़ करने का पराविधान किया जाएगा.
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं.)
साभार – हिंदुस्थान समाचार
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