1940 के दशक की बात है. पुरानी दिल्ली में छठी कक्षा के कुछ छात्रों ने घर की चादरों से पर्दों का और चारपाइयों से कुर्सियों का काम निकाल कर एक नाटक करने का निर्णय लिया. नाटक का नाम था शहीद भगत सिंह. इसमें भगत सिंह की भूमिका करने वाला छात्र लोगों की भीड़ देखकर सहम गया और परदे के पीछे दूसरे काम करने लगा. भरपूर ऊर्जा और आत्मविश्वास से भरे इस लड़के ने सहपाठियों द्वारा मज़ाक उड़ाने के बावजूद अभिनेता बनने के अपने फैसले को नहीं बदला. छात्रों के इसी समूह में एक किशोर की पत्रकारिता में गहरी रुचि थी. इन दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई और कुछ वर्षों बाद दोनों फिल्म जगत में काम और नाम कमाने के लिए बंबई चले गए. यह दोनों थे भगत सिंह यानी मनोज कुमार और पत्रकारिता में रुचि रखने वाले केवल कश्यप.
कुछ समय प्रोडक्शन अस्सिटेंट और छोटी-छोटी भूमिकाओं में अभिनय करना शुरू कर नायक बनने तक मनोज कुमार और कुछ फिल्मी सितारों के प्रचारक बनने से लेकर निर्माता बनने तक केवल कश्यप एक दूसरे के संपर्क में रहे और जब इस लायक हो गए कि वह फिल्म बना सकें तो तय किया गया कि फिल्म भगत सिंह पर ही बनाई जाए. शीर्षक रखा गया “शहीद.” काफी मेहनत और रिसर्च के बाद मनोज कुमार ने कहानी लिखी. इसके लिए बिना पैसे की परवाह किए वह उस हर व्यक्ति से मिले जो तब जीवित था और किसी भी तरीके से भगत सिंह के संपर्क में रहा था. यहां तक वे भगत सिंह के भाई और उनकी मां जो उस समय 81 वर्ष की अवस्था में भी सक्रिय थीं, उनसे पंजाब जाकर मिले और काफी नई जानकारी प्राप्त कीं. केवल कश्यप ने फिल्म बनाने के लिए अपनी संपत्ति पर बैंक का कर्जा लिया. अपनी फिएट गाड़ी भेज दी और सारे पैसे इस फिल्म के निर्माण में लगा दिए. लेकिन किसी को उनकी फिल्म की सफलता पर भरोसा नहीं था क्योंकि उससे पहले 1952 में प्रदर्शित फिल्म जिसमें प्रेम अदीब ने भगत सिंह की भूमिका की थी और दूसरी फिल्म शहीद भगत सिंह जो 1963 में प्रदर्शित हुई थी और इसमें शम्मी कपूर ने भगत सिंह की भूमिका की थी, फ्लॉप हो चुकी थीं. लेकिन इन दोनों को अपनी रिसर्च और स्क्रिप्ट पर पूरा भरोसा था.
हालांकि बजट कम होने के कारण ज्यादातर नए सितारों के साथ फिल्म शुरू की गई थी. तब प्राण एक बड़े खलनायक थे और लोग उन्हें देखने सिनेमाघरों पर टूटते थे. उनको ध्यान में रखकर मनोज कुमार ने एक काल्पनिक किंतु एक महत्वपूर्ण पात्र केहर सिंह की रचना की थी. केवल कश्यप ने जब इस भूमिका के बारे में प्राण से बात की तो कम पैसे की वजह से उन्होंने भूमिका करने से इनकार कर दिया. तब मनोज कुमार जो उनके साथ दो बदन फिल्म कर चुके थे, किसी अन्य फिल्म के सेट पर मिले तो उन्होंने यह बताया कि यह छोटी-सी भूमिका उनके लिए कितनी महत्त्वपूर्ण साबित होगी क्योंकि यह उनको ध्यान में रखकर विशेष तौर पर लिखी गई है और अगर वह इसे नहीं करेंगे तो वह इसे फिल्म से ही निकाल देंगे. तब प्राण तैयार हो गए और सच में डाकू केहर सिंह की यह भूमिका उनके लिए बहुत लाभकारी सिद्ध हुई.
शहीद की शूटिंग लुधियाना के एक वास्तविक जेल में हुई थी. प्राण इस जेल में सत्याग्रहियों के साथ ही बंद थे लेकिन सर्वाधिक उग्र कैदी थे जो अपनी फांसी के दिन का इंतजार करते हुए जेल में हर रोज़ कुछ न कुछ उपद्रव फैलाते रहते हैं. मदन पुरी जेलर की भूमिका में थे. भगत सिंह के बारे में सुनकर उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है. उसे इस बात पर हैरानी होती है कि उसके जैसे अपराधी और भारत माता के सपूत भगत सिंह को एक जैसी सजा कैसे दी जा सकती है यानी फांसी की सज़ा. अंतिम दृश्य में जब केहर सिंह को फांसी के लिए ले जाया जा रहा है तब वह भगत सिंह से मिलने की इच्छा प्रकट करता है और उससे कहता है कि मैं ऊपर जा रहा हूं और भगवान से पूछूंगा कि तुम्हारी दुनिया में यह क्या हो रहा है? भगत सिंह और केहर सिंह दोनों से एक जैसा बर्ताव. अंत में किसी नेक व्यक्ति से हाथ मिलाने की बात वाला दृश्य बहुत भावुक करने वाला है. क्योंकि दोनों के हाथ बंधे थे तो दोनों एक-दूसरे की ओर पीठ करके हाथ मिलाते हैं. फांसी के तख़्ते की और जाते-जाते वह आंखों में आंसुओं और रुंधे गले से दूसरे कैदियों से कहते है मेरे बच्चों यानी भगत सिंह और उनके साथियों का ख्याल रखना. बाद में प्राण ने इस किरदार को हमेशा अपना सबसे शक्तिशाली किरदार माना. इस फिल्म में प्राण परदे पर केवल 5 मिनट ही रहे थे लेकिन इस किरदार से अच्छे व्यक्ति का रोल करने की उनकी काबिलियत सबके सामने आ गई थी. शहीद की टीम ने सभी को आश्चर्यचकित करते हुए बहुत नाम और पैसा कमाया.
1 जनवरी 1965 में रिलीज़ हुई इस फिल्म के प्रीमियर में लाल बहादुर शास्त्री जो बहुत कम समय के लिए आए थे, लेकिन फिर पूरे तीन घंटे बैठकर इस फिल्म को देखकर गए. इस फिल्म को उस साल के तीन राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए. श्रेष्ठ कहानी के लिए ऑल इंडिया सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट. श्रेष्ठ हिंदी फिल्म के लिए राष्ट्रपति द्वारा रजत पदक और राष्ट्रीय एकता पर श्रेष्ठ फिल्म के लिए ₹20,000 नग़द. इस फिल्म को सबसे बड़ा पुरस्कार तब मिला जब भगत सिंह की मां ने लुधियाना में इस फिल्म को देखा और इसको अपने बेटे पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म बताया. फिल्म के क्रेडिट्स में फिल्म के निर्देशक के रूप में एस राम शर्मा का नाम गया था लेकिन सब जानते हैं इस फिल्म को निर्देशन मनोज कुमार ने ही किया था.
चलते-चलते
अपनी रिसर्च के दौरान मनोज कुमार को भगत सिंह के बारे में दो अनजाने तथ्य प्राप्त हुए थे जिनमें से वह केवल एक को अपनी फिल्म में इस्तेमाल कर सके. पहला तथ्य यह था कि भगत सिंह का वास्तविक नाम भाग्य था क्योंकि जिस दिन उनका जन्म हुआ था उसी दिन उनके स्वतंत्रता संग्रामी चाचा और भाई जेल से रिहा हुए थे अत: उनके दादा ने उन्हें भाग्यशाली समझकर उनका नाम भाग्य रखा था. दूसरा हृदय स्पर्शी तथ्य यह था कि जिस लड़की से भगत सिंह का विवाह होने वाला था उसे किसी कारणवश मजबूर होकर किसी और से विवाह करना पड़ा. 23 मार्च 1931 को जिस दिन भगत सिंह को फांसी हुई उसी दिन अचानक उसके पति का भी देहांत हो गया. तब उसने भगत सिंह की मां से रोते हुए कहा था, यदि मेरे भाग्य में विधवा होना ही लिखा था तो भगत सिंह की विधवा होना ही गौरव की बात थी.
हिन्दुस्थान समाचार
कमेंट