होली का त्यौहार हर साल पूरे भारत में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है. राजस्थान में भी उसी उत्साह और जोश के साथ होली मनाई जाती है. होली जिसे मूल रूप से ‘होलिका’ के नाम से जाना जाता है. केवल एक आधुनिक उत्सव नहीं है बल्कि भारतीय संस्कृति में गहराई से अंतर्निहित सदियों पुरानी परंपरा है. इसके शुरुआती संदर्भ जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथक-गृह्य-सूत्र जैसे प्राचीन धार्मिक कार्यों में पाए जा सकते हैं. ऐसा माना जाता है कि होली आर्य सभ्यता में मनाई जाती थी.
होली का त्योहार वसंत ऋतु की शुरुआत को चिह्नित करने के लिए मनाया जाता है. होली महोत्सव की विशिष्ट तिथि हर साल अलग-अलग हो सकती है, क्योंकि यह हिंदू कैलेंडर में फागुन महीने की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है.
होली के अवसर पर राजस्थान के विभिन्न शहरों में कई तरह के आयोजन किए जाते हैं. राजस्थान में होली के विविध रंग देखने में आते हैं. होली के दिनों में जयपुर के इष्टदेव गोविंद देव मंदिर में नजारा देखने लायक होता है. राजस्थान के मंदिरों में होली पर रंग-गुलाल के साथ फाग उत्सव का आयोजन किया जाता है.
बीकानेर, बाड़मेर और अजमेर की होली
बीकानेरी होली का सबसे आकर्षण का केन्द्र होता है पुष्करणा समाज के हर्ष और व्यास जाति के बीच खेला जाने वाला डोलची. पानी का खेल डोलची, चमड़े से बना एक ऐसा पात्र है जिसमें पानी भरा जाता है और जोरदार प्रहार के साथ सामने बाले की पीठ पर इस पानी को मारा जाता है. बाड़मेर में पत्थर मार होली खेली जाती है तो अजमेर में कोड़ा अथवा सांतमार होली लोग बहुत धूमधाम से मनाते हैं.
भरतपुर में लठ मार होली की परंपरा
भरतपुर के ब्रजांचल में फाल्गुन का आगमन कोई साधारण बात नहीं है. ब्रज के गांव की चौपालों पर ब्रजवासी ग्रामीण अपने लोकवाद्य बम के साथ अपने ढप, ढोल और झांझ बजाते हुए रसिया गाते हैं. डीग क्षेत्र की ग्रामीण महिलाएं अपने सिर पर भारी-भरकम चरकुला रखकर उस पर जलते दीपकों के साथ नृत्य करती हैं.
संपूर्ण ब्रज में इस तरह आनंद की अमृत वर्षा होती है. यह परम्परा ब्रज की धरोहर है. बरसाने, नंदगांव, कामां, डीग आदि स्थानों पर ब्रज की लठमार होली की परम्परा आज भी यहां की संस्कृति को पुष्ट करती है. चैत्र कृष्ण द्वितीया को दाऊजी का हुरंगा भी प्रसिद्ध है.
पुष्कर में कपड़ा फाड़ होली
ब्रहृमानगरी पुष्कर की कपड़ा फाड़ होली ने देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी धाक जमा ली है. यहां विदेशी सैलानियों के साथ स्थानीय और देशी पर्यटक बड़ी धूमधाम के साथ होली खेलते हैं और एक-दूसरे के कपड़े भी फाड़ते हैं.
भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़ में ऐसे खेली जाती है होली
मेवाड़ अंचल के भीलवाड़ा जिले के बरून्दनी गांव में होली के सात दिन बाद शीतला सप्तमी पर खेली जाने वाली लठमार होली का अपना एक अलग ही मजा रहा है. माहेश्वरी समाज के स्त्री-पुरूष यह होली खेलते हैं. डोलचियों में पानी भरकर पुरूष महिलाओं पर डालते हैं और महिलाएं लाठियों से उन्हें पीटती हैं. यहां होली के बाद बादशाह की सवारी निकाली जाती है.
वहीं शीतला सप्तमी पर चित्तौड़गढ़ वालों की हवेली से मुर्दे की सवारी निकाली जाती है. इसमें लकड़ी की सीढ़ी बनाई जाती है और जिंदा व्यक्ति को उस पर लिटाकर अर्थी पूरे बाजार में निकालते हैं. इस दौरान युवा इस अर्थी को लेकर पूरे शहर में घूमते हैं. लोग इन्हें रंगों से नहला देते हैं.
डूंगरपुर में अंगारों पर नंगे पावं चलने की परंपरा
राज्य के डूंगरपुर जिले की होली सबसे अनोखी मानी जाती है. यहां वांगड़वासी होली के एक महीने पहले ही तैयारियों में जुट जाते हैं और होली के खुमार में मस्त हो जाते है. होली के दिन जिले के कोकापुर गांव में लोग होलिका के दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलने की परंपरा आज भी निभाते है. लोगों का मानना है कि होलिका दहन के अंगारों पर चलने से घर में कोई भी विपदा नहीं आती है.
डूंगरपुर के भीलूड़ा में पिछले 200 साल से धुलंडी पर लोग पत्थरमार होली खेल रहे है. लोग रंगों के स्थान पर पत्थर बरसा कर खून बहाने को होली के दिन शगुन मानते है. इस दिन भारी संख्या में लोग रघुनाथ मंदिर परिसर में दो टोलियों बनाकर एक दूसरे पर पत्थर बरसाना शुरू कर देते है. इस खेल में घायल लोगों को तुरंत अस्पताल में भर्ती करवाया जाता है. इसके अलावा मथुरा के लगता जिला होने के चलते भरतपुर और करौली के नंदगाव में लोग आज भी लठ्ठमार होली खेलते है.
शेखावाटी की होली पूरे देश में प्रसिद्ध
शेखावाटी की होली पूरे देश में प्रसिद्ध है. फाल्गुन में सांझ ढलते ही धमाल सुनाई देने लगे हैं. चंग की थाप पर पांव थिरकने लगे हैं और बांसुरी की सुरीली आवाज कानों में मिश्री घोलने लगी है. होली नजदीक आने पर शेखावाटी में अंचल के गांव-गांव और ढाणी-ढाणी में ऐसा माहौल देखने को मिल रहा है. उमंग और मस्ती भरे पर्व होली की शुरुआत तब होती है, जबकि बसन्त अपने पूर्ण यौवन पर होता है और बांसुरी की मदहोश करती धुनें और चंग की थाप पर मानव का मन-मयूर नाचने लगता है. होली नजदीक आने पर शेखावाटी में अंचल के गांव-गांव और ढाणी-ढाणी में ऐसा माहौल देखने को मिल रहा है.
शेखावाटी में होली के अवसर पर बजाया जाने वाला चंग भी इसी क्षेत्र में ही विशेष रूप से बनाया जाता है. चंग की आवाज तो ढोलक की माफिक ही होती है, मगर बनावट ढोलक से सर्वथा भिन्न. चंग ढोलक से काफी बड़ा और गोल घेरे नुमा होता है. होली के प्रारम्भ होते ही गांवों में लोग अपने-अपने चंग (ढप) संभालने लगते हैं. होली चूंकि बसंत ऋतु का प्रमुख पर्व है तथा बसंत पंचमी बसंत ऋतु प्रारम्भ होने की द्योतक है. इसलिए इस अंचल में बसंत पंचमी के दिन से चंग (ढप) बजाकर होली के पर्व की विधिवत शुरुआत कर दी जाती है. क्षेत्र में होली के पर्व पर चंग की धुन पर गाई जाने वाली धमालों में यहां की लोक संस्कृति का ही वर्णन होता है.
होली पर गींदड़ नृत्य
शेखावाटी अंचल में होली पर कस्बों में विशेष रूप से गींदड़ नृत्य किया जाता है. गुजराती नृत्य गरवा से मिलता-जुलता गींदड़ नृत्य में काफी लोग विभिन्न प्रकार की चिताकर्षक वेशभूषा में नंगाड़े की आवाज पर एक गोल घेरे में हाथ में डंडे लिए घूमते हुए नाचते हैं तथा आपस में डंडे टकराते हैं. प्रारम्भ में धीरे-धीरे शुरू हुआ यह नृत्य धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ता जाता है. इसी रफ्तार में डंडों की आवाज भी टकरा कर काफी तेज गति से आती है तथा नृत्य व आवाज का एक अद्भुत दृश्य उत्पन्न हो जाता है.
लोगों का कहना है कि अगर होली के त्यौहार से लोक वाद्य चंग और धमाल को निकाल दिया जाये तो होली का त्यौहार बेजान हो जायेगा. ग्रामीण चंग और धमाल को होली पर्व की आत्मा मानते हैं. आज ये परम्परा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है. पहले यहां होली का त्योहार प्यार के साथ मनाया जाता था, सब साथ मिलकर चंग पर धमाल गाते थे लेकिन आजकल वो सब खत्म-सा हो गया है. क्षेत्र में बढ़ते शराब के प्रचलन के कारण लोग रात्रि में घरों से बाहर निकलने से डरने लगे हैं तथा गांवों में भी पहले की तरह सामंजस्य नहीं रहा. इसके अलावा ऑडियो कैसेटों के बढ़ते प्रचलन से भी इस लोक पर्व को कृत्रिम-सा बना दिया है. इससे पर्व की मौलिकता ही समाप्त होती जा रही है. यदि समय रहते होली पर व्याप्त हो रही कुरीतियों और शराब के चलन की समाप्ति का प्रयास नहीं किया गया तो यह पर्व अपना मूल रूप खो बैठेगा.
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं)
हिन्दुस्थान समाचार
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