भारतीय संस्कृति के सबसे समागम कुम्भ,जो कि आध्यात्मिक धरोहर का प्रतीक है और यहां से वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश पूरी दुनिया को दिया गया. यह न केवल धार्मिक उत्सव रहा है बल्कि सदियों से समाज की सामूहिक चेतना और स्वतंत्रता की भावना भी यहीं से बलवती हुई है. कुम्भ मेले में जहां अनगिनत श्रद्धालु और संत अपनी आस्था की डुबकी लगाने संगम पहुंचते हैं, वहीँ यह कभी अंग्रेजों के लिए एक परेशानी का सबब बन गया था. ब्रिटिश सरकार इसे अपने लिए खतरा मानती थी और इसे रोकने के लिए रेल सेवा पर प्रतिबंध लगा दिया जाता था.
ब्रिटिश सरकार कुम्भ को लेकर कितना सशंकित रहती थी,इसका विवरण समय-समय पर जारी रिपोर्ट से पता चलता है. 1894 और 1906 में हुए कुंभ मेले से जुड़ी रिपोर्ट तत्कालीन मजिस्ट्रेट एच. वी. लावेट ने तैयार की थीं. जिसके अनुसार यहां आनेवाली भीड़ केवल तीर्थयात्रियों का जमावड़ा नहीं है,बल्कि मेले में लोगों का एक साथ जुटना और विचारों का आदान-प्रदान सरकार के लिए बड़ा ख़तरा हो सकता है. इतिहास के प्राध्यापक प्रो भूपेश प्रताप सिंह कहते हैं, ब्रिटिश सरकार कुम्भ को हमेशा अपने लिए समस्या मानती थी और कम से कम लोग यहां आएं. इसके लिए कठोर कदम उठाए गए. सबसे उल्लेखनीय कदम था रेलवे टिकट की बिक्री पर प्रतिबंध. रेलगाड़ी, जो उस समय लंबी दूरी के यात्रियों के लिए मुख्य साधन थी, को बंद कर दिया जाता था. प्रो सिंह के अनुसार 1918 के कुंभ मेले में यह प्रतिबंध और भी स्पष्ट हुआ. तत्कालीन रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष आर.डब्ल्यू. गिलन ने संयुक्त प्रांत के उप राज्यपाल जेम्स मेस्टन को पत्र लिखकर इस बात पर जोर दिया कि कुंभ मेले के लिए जाने वाली ट्रेनों की संख्या कम की जाए और टिकट की बिक्री बंद कर दी जाए. उद्देश्य यह था कि लोग प्रयागराज तक पहुंच ही न सकें. इस निर्णय ने न केवल तीर्थयात्रियों की आस्था पर चोट पहुंचाई बल्कि लोगों के बीच आक्रोश भी पैदा किया.
हिन्दुस्थान समाचार
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