15वीं सदी में सामाजिक विषमता, धर्म, वर्ण-वर्ग भेद, पग-पग पर व्याप्त था. अध्यात्म और सनातन संस्कृति के संवाहक संतों ने अपनी वाणी के संदेश द्वारा समसामयिक भेदभाव, जातिगत ऊंच-नीच, रूढ़िवादी परंपराओं एवं अंधविश्वासों को दूर करने के लिए कार्य किया था. भारतीय संत परंपरा में संत कबीर का नाम प्रमुखता से आता है, तो उनके समकालीन संत रविदास, मलूकदास, दादू दयाल, संतपीपा, पलटूदास, सुंदरदास आदि संतों का उल्लेख भी प्राप्त होता है. संत रविदास ने अपनी वाणी के माध्यम से “मन चंगा तो कठौती में गंगा” जैसी सूक्तियों द्वारा समसामयिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध जन जागरण का कार्य किया. इसी वजह से आज भी संत रविदास का स्मरण हम सब आदर पूर्वक करते हैं.
संत रविदास के जीवन परिचय में उनके माता-पिता, जन्म स्थान, शिक्षा आदि विषय में अनेक मत प्रचलित है, लेकिन जन श्रुतियों एवं अनुमान के आधार पर संत रविदास, कबीर के समकालीन थे. उनका जन्म सन् 1388 को उत्तर प्रदेश के बनारस में मांडूर ग्राम में हुआ था. इनके पिता का नाम रघु, माता का नाम कर्मा देवी था. संत रविदास गरीब परिवार में पैदा हुए और गृहस्थ जीवन निर्वाह करते हुए भी उच्च कोटि के संत थे. उनकी अपार लोकप्रियता, अद्भुत प्रतिभा और व्यापक प्रभाव के संबंध में अनेक किवदंतियां प्रचलित हैं. देश के अनेक भागों में लाखों लोग उनके अनुयाई हैं. राजपूताना के मेवाड़ की कृष्ण भक्त मीरा ने उनसे दीक्षा प्राप्त की. संत रविदास ही उनके आध्यात्मिक गुरु थे. गुरुग्रंथ साहिब में उनके द्वारा रचित सांखियों का उल्लेख भी प्राप्त होता है.
रविदास चर्मकार समाज से थे. तत्कालीन समय में ऊंच- नीच, छुआछूत और भेदभाव अपने चरम पर था. रविदास ने अपनी जाति का उल्लेख अपने द्वारा रचित पदों एवं सांखियों में किया है. इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद ईश्वर के प्रति उनकी आस्था और भक्ति की प्रगाढ़ता देखने को मिलती है. ईश्वर के प्रति उनका निश्छल प्रेम और समर्पण भाव स्वत: परिलक्षित होता है.
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी,
जांकी अंग-अंग बास समानी.
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा,
ऐसी भगति करै रैदासा.
धैर्य, शालीनता, संयमता जैसे गुणों से पूर्ण संत रविदास ने अपने आचरण, व्यवहार, विचारों की श्रेष्ठता और गुणों से ईश्वर के भक्ति मार्ग द्वारा यह प्रतिस्थापित कर दिया कि व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता बल्कि कर्म से महान होता है. संत रविदास ने जन समुदाय की पीड़ा को समझा और उसे ही अपनी वाणी द्वारा प्रस्तुत किया. उनके जीवन और काव्य का प्रमुख उद्देश्य जातिगत भेदभाव मिटाना और सामाजिक समरसता, समता, स्वतंत्रता और बंधुता की समाज में स्थापना करना था. जाति उनकी दृष्टि में एक कदली के पेड़ के समान है. जिस तरह केले के पेड़ में एक पत्ते के नीचे फिर पत्ता होता है, वही स्थिति जाति की होती है. उन्होंने कहा कि जाति-जाति में जाति है,
जो केतन के पात
रैदास मनुष ना जुड़ सके,
जब तक जाति न जात.
संत रविदास निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे. निर्गुण ब्रह्म ही इस संसार के पोषणकर्ता, आधार स्तंभ, करुणा के सागर एवं कृपालु हैं, जिनके दृष्टिपात से ही अष्टादश सिद्धियां स्वयं उत्पन्न होती हैं. निर्गुण ब्रह्म का स्वरूप जो बताया उसके विवेचन में शिवरूप स्तुति तथा श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण के विराट स्वरूप का समर्थन दिखाई देता है. उनके निर्गुण ब्रह्म के चरण पाताल, सिर आसमान, नख का स्वेद सुरसरिधारा और शिव , सनकादि तथा ब्रह्मा ने भी उनका परिचय नहीं पा सके हैं. सनातन धर्म और संस्कृति में उनकी प्रगाढ़ता बहुत थी. वे सबको बिना भेदभाव के मिलकर रहने का संदेश देते थे, लेकिन उनकी प्रतिष्ठा और बढ़ते प्रभाव को देखकर मुगल शासकों ने धर्मांतरण का दबाव बनाया. संत रविदास निर्भीक, साहसी, वचनों की प्रतिबद्धता, धार्मिक निष्ठा पर अडिग रहते हुए अनुयायियों को सनातन धर्म और संस्कृति की महत्ता का संदेश दिया, उन्होंने कहा है कि –
वेद वाक्य उत्तम धरम,
निर्मल बांका ज्ञान.
यह सच्चा मत छोड़कर,
मैं क्यों पढूं कुरान.
काशी में रहने वाले रूढ़िवादी धर्मावलंबियों द्वारा उनकी प्रतिष्ठा को अनेक षड्यंत्रों द्वारा धूमिल करने का प्रयास किया गया लेकिन उनका मंतव्य था की सत्य एक है और वह सनातन है, जो वेदों में निहित है. संत रविदास मूर्ति पूजा एवं पाखंड के विरोध में थे लेकिन वेदों की प्रमाणिकता स्वीकार्यता के साथ उनमें निहित ज्ञान के प्रबल समर्थक एवं प्रचारक थे. उन्होंने कहा कि- सत्य सनातन वेद है ज्ञान धर्म मर्याद. जो न जाने वेद को वर्था करें बकवाद.
(लेखक, इग्नू के सहायक क्षेत्रीय निदेशक हैं)
हिन्दुस्थान समाचार
कमेंट